नर्मदा-क्षिप्रा नदी जोड़ योजना :
फिर नादानी नदियों को जोड़ने की
हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बहुप्रचारित
नर्मदा-क्षिप्रा लिंक (पाईप लाईन) योजना का उद्घाटन किया गया है। चुनावी लाभ लेने
के लिए तैयार की गई इस अव्यवहारिक योजना से प्रदेश सरकार ने एक नए जल विवाद की
नींव रख दी है। साथ ही प्रदेश सरकार (और अवैधानिक गतिविधियों के प्रति ऑंखे मूँद
लेने के लिए केन्द्र सरकार भी) का यह गैरकानूनी कृत्य सामने आया है कि इस योजना
का न तो पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (EIA)
संबंधी अध्ययन करवाया गया है और न ही पर्यावरणीय मंजूरी लेना
जरुरी समझा गया है।
432 करोड़ रुपए की लागत और 5 क्यूमेक्स (5 हजार लीटर प्रति सेकण्ड।) क्षमता वाली इस योजना के लाभों के बारे में बड़े-बड़े और अविश्वसनीय दावे किए जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह क्षमता 362 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) है । मध्यप्रदेश सरकार के सूचना प्रकाशन विभाग की विज्ञप्ति के अनुसार योजना के घोषित लाभों में देवास और पीथमपुर के उद्योगों, देवास इंदौर सड़क पर बसे उपनगरों और 150 गाँवों को पेयजल उपलब्ध करवाने के साथ ही सूख चुकी क्षिप्रा नदी को सदानीरा बनाना भी शामिल है। लगभग इंदौर जैसे एक शहर की पेयजल जरुरत के बराबर क्षमता वाली बिजली पर निर्भर इस योजना के दावों पर विश्वास करना मुश्किल है। यदि पाईप लाईनों से ही नदियाँ जिंदा हो जाती तो अब तक शायद ही देश की कोई नदी सूखी रहती।
432 करोड़ रुपए की लागत और 5 क्यूमेक्स (5 हजार लीटर प्रति सेकण्ड।) क्षमता वाली इस योजना के लाभों के बारे में बड़े-बड़े और अविश्वसनीय दावे किए जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह क्षमता 362 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) है । मध्यप्रदेश सरकार के सूचना प्रकाशन विभाग की विज्ञप्ति के अनुसार योजना के घोषित लाभों में देवास और पीथमपुर के उद्योगों, देवास इंदौर सड़क पर बसे उपनगरों और 150 गाँवों को पेयजल उपलब्ध करवाने के साथ ही सूख चुकी क्षिप्रा नदी को सदानीरा बनाना भी शामिल है। लगभग इंदौर जैसे एक शहर की पेयजल जरुरत के बराबर क्षमता वाली बिजली पर निर्भर इस योजना के दावों पर विश्वास करना मुश्किल है। यदि पाईप लाईनों से ही नदियाँ जिंदा हो जाती तो अब तक शायद ही देश की कोई नदी सूखी रहती।
इस योजना के लिए नर्मदा पर निर्माणाधीन औंकारेश्वर परियोजना
की नहरों से पानी लिफ्ट किया जाना है। नर्मदा परियोजना और इसके पानी के लिए दशकों
से निमाड़ के किसानों को सपने दिखाए जा रहे हैं। लेकिन इससे पहले कि यह पानी निमाड़
के खेतों में पहुँच पाता इससे मालवा की नदियों को जिंदा करने और वहॉं का जल संकट खत्म
करने का शिगुफा छोड़ दिया गया है। केवल इतना ही नहीं क्षिप्रा नदी को कलकल छलछल
बहाने का सपना (सपनों और सच्चाई में फर्क होता है) पूरा करने के पहले ही इस पाईप
लाईन को इंदौर के निकट स्थित पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र की ओर मोड़ दिया गया है। 362
एमएलडी से 90 एमएलडी औद्योगिक जलप्रदाय हेतु मध्यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम और
दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना द्वारा एक अलग कंपनी (स्पेशल परपज
वेहीकल) बनाई गई है। दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना द्वारा इस योजना में
निवेश का अर्थ इस गलियारे के आसपास के क्षेत्रों में होने वाले औद्योगीकरण हेतु
पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना है। उद्योगपति सरकार की नीतियॉं प्रभावित करते हैं
ऐसे में उद्योगों के सामने आम आदमी की हैसियत ही क्या है? वास्तव में जनता की
ऑंखों में धूल झोकने का सरकार का यह छुपा एजेंडा है। उद्योगों के लिए सरकार ने
पहले निमाड़ के लोगों को छला और अब मालवा के लोगों को छल रही है।
मालवा क्षेत्र की जल समृद्धि को बयान करने वाली कहावत "पग-पग
रोटी, डग-डग नीर" स्थानीय जनमानस में सदियों से चर्चित है। लेकिन नब्बे के
दशक की शुरुआत से ही मालवा में जल संकट की आहट सुनाई देने लगी थी। इसी समय देवास
शहर में पेयजल का इतना भीषण संकट पैदा हुआ
कि शहर के लिए पानी की विशेष रेलगाड़ियाँ चलानी पड़ी। जिले को कृत्रिम जल संचयन में
मॉडल बनाया गया। जंगल, खेत, खलिहान और घरों छतों से एक-एक बूँद पानी रोकने के सरकारी
अभियान चलाए गए। रोके गए पानी के ऑंकड़ों का तालाबों की संख्या और रोके गए पानी
की मात्रा में खूब बखान किया गया है। देवास के जल संचय अभियान के ऑंकड़ों से कई
अधिकारियों ने खुद को असली 'भगीरथ' बताया तथा पुरस्कार और प्रशंसा पाते हुए अपने
कैरियर चमका लिए। लेकिन प्रदेश में हर साल हजारों करोड़ रुपयों की जल संवर्धन
योजनाओं के बावजूद न तो कहीं भमिगत जल में बढ़ोत्तरी दिखाई दे रही है और न ही पेयजल
उपलब्धता में सुधार। देवास जिले में भी पिछले 2 दशकों से निरंतर बड़े-बड़े जल संचय
अभियान चलाए जा रहे हैं तो फिर यहॉं की नदियाँ सूखी क्यों है?
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने 6
जुलाई 2012 को एक समारोह में दावा किया था कि उनके तब तक के 7 वर्षों के कार्यकाल
में 'जलाभिषेक अभियान' के तहत प्रदेश में 7 लाख से अधिक जल संरचनाएँ में बनाई गई
है। यदि हम 1994 से 2004 के बीच के दिग्विजयसिंह के कार्यकाल के 'पानी रोको'
अभियान को नज़रअंदाज कर दें तो भी शिवराजसिंह के कार्यकाल में हर गॉंव में औसतन 20
से अधिक तालाब बनाए गए हैं। चूँकि मालवा में जल संकट है इसलिए इन 7 लाख तालाबों
में से ज्यादातर मालवा में बने होंगें। इन जल संरचनाओं में जमा पानी कहॉं चला गया
कि मालवा की एक के बाद दूसरी सारी नदियॉं सूखती जा रही है और मुख्यमंत्री को
क्षिप्रा के साथ ही खान,
गंभीर,
चंबल,
कालीसिंध और पार्वती नदी को भी उधार से पानी से बारहमासी
बनाने की योजना बनानी पड़ रही है। मालवा क्षेत्र का समाज यदि अपने 'डग-डग नीर'
की उपेक्षा कर इस समृध्द धरती को रेगिस्तान बनाने पर तुला है तो इस बात की
क्या गारण्टी है कि वह अनैतिक तरीके से
मिले नर्मदा के पानी का सम्मान करेगा?
निमाड़ क्षेत्र के किसान मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर
खण्डपीठ के समक्ष इस योजना का संचालन और उद्घाटन रोकने की गुहार कर चुकें हैं।
न्यायालय के समक्ष किसानों का तर्क है कि निमाड़ में नहरों का कार्य रोककर नर्मदा-क्षिप्रा
पाईप लाईन का काम किया गया है। उल्लेखनीय इस पाईपलाईन योजना के लिए पैसा भी
औंकारेश्वर नहर परियोजना के बजट से खर्च कर दिया गया है। नर्मदा घाटी के विकास के
लिए बनाई गई नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण अब मालवा क्षेत्र के विकास में जुट गई
है। अभी तक यही समझा जाता रहा है कि नर्मदा योजनाओं से निमाड़ में समृद्धि आएगी,
इसी आधार पर निमाड़ क्षेत्र के लोगों का बलिदान भी लिया गया।
लेकिन, अब प्रस्तावित
लाभ मृग मरीचिका प्रतीत होने लगे हैं। केवल इतना ही नहीं, इससे मध्यप्रदेश के ही दो इलाकों के बीच नया जल विवाद खड़ा
होने की आशंका बलवती हो गई है।
इस योजना के माध्यम से सिंहस्थ के दौरान क्षिप्रा में जल
उपलब्धता भी प्रमुख लक्ष्य है इसलिए इस योजना को 'सिंहस्थ लिंक' का नाम दिया
गया है। योजना के संबंध में धार्मिक विवाद भी शुरु हुए हैं। पहली आपत्ति नागा
साधुओं की ओर से आई है जिसमें कहा गया है कि नर्मदा नदी की चिरकुआंरी होने की मान्यता
के कारण वे इस नदी में स्नान नहीं करते हैं। नर्मदा का पानी मिल जाने के कारण
उनके लिए क्षिप्रा में स्नान करना संभव नहीं होगा। स्मरण रहे कुंभ और सिंहस्थ
में पहला स्नान नागा साधुओं का ही होता है। दूसरी आपत्ति पायलट बाबा और कंप्यूटर
बाबा जैसे कुछ साधुओं की ओर से आई है। इन साधुओं ने इस योजना को औचित्यहीन बताते
हुए प्रदेश के 25 जिलों से होकर गुजरने वाली 'नर्मदा-क्षिप्रा लिंक तोड़ो' यात्रा
प्रारंभ कर दी है। यात्रा के दौरान इस बात का प्रचार किया जाएगा कि प्रदेश सरकार
ने योजना के नाम पर जनता को मूर्ख बनाया है। यदि 500 करोड़ रुपये क्षिप्रा को
पुनर्जीवित करने में खर्च किए जाते तो यह नदी, पर्यावरण और स्थानीय लोगों के हित
में होता।
देश में नदी जोड़ योजना के प्रभावों पर लम्बा विमर्श हो
चुका है और विशेषज्ञों ने इस पर गंभीर सवाल उठाए हैं। इसके सामाजिक, आर्थिक और
पर्यावरणीय दुष्प्रभावों के कारण इसे आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। लेकिन मध्यप्रदेश
के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान राजनैतिक लाभ के लिए बोतल में बंद इस जिन्न को
फिर से आजाद कर रहे है। उनकी योजना में नर्मदा क्षिप्रा लिंक तो एक शुरुआत भर है।
अक्टूबर 2012 को विश्व बैंक मुख्यालय में उनके द्वारा कर्ज की मॉंग करते हुए दिए
गए प्रस्तुतिकरण के अनुसार सरकार की योजना 'नर्मदा-मालवा लिंक' का निर्माण करने
की है जिसके तहत गंभीर, पार्वती, कालीसिंध आदि नदियों को नर्मदा से जोड़ा जाना है।
इस योजना से 3000 गॉंवों और 10 शहरों को पेयजल उपलब्ध करवाने के साथ 16.8 लाख हेक्टर में
सिंचाई की जाएगी। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि बिजली से चलने वाली इस योजना से
1000 मेगावाट बिजली निर्माण का दावा भी किया गया है।
नर्मदा क्षिप्रा लिंक की वित्तीय व्यवस्था का खुलासा नहीं
किया गया था। बाद में पता चला कि इस योजना के लिए त्वरित सिंचाई लाभ योजना (Accelerated
Irrigation Benefit Scheme) के तहत औंकारेश्वर परियोजना की नहरों
के लिए केन्द्र से मिले धन का उपयोग कर लिया गया है।
नर्मदा-मालवा जोड़ योजना के लिए प्रदेश सरकार ने विश्व बैंक से कर्ज की
मॉंग की है इसलिए इसके अंतर्गत सभी योजनाओं को बाज़ार के सिध्दांतों से चलाया जाना
है। 27 सिंतबर 2013 को जारी सैध्दांतिक सहमति में राज्य शासन ने स्पष्ट कर
दिया है कि योजना का संचालन-संधारण खर्च किसानों से वसूल किया जाएगा। नर्मदा घाटी
विकास प्राधिकरण के पिछले वर्ष के आंकलन के अनुसार नर्मदा क्षिप्रा लिंक में प्रति
हजार लीटर पानी पंप करने का बिजली खर्च ही 9 रुपए बैठता है। यदि प्रशासनिक एवं अन्य
खर्च जोड़ दिए जाऍं तो यह खर्च दुगना हो जाता है। इंदौर शहर में 1978 से नर्मदा जल
प्रदाय करने की योजना संचालित है। इसके अब तक 3 चरण हो चुके हैं। लेकिन किसी भी
चरण में नगरनिगम संचालन-संधारण खर्च वसूल नहीं पाया है। देवास औद्योगिक क्षेत्र
हेतु प्रारंभ की गई नर्मदा योजना से पानी खरीदने हेतु स्थानीय नगरनिगम सक्षम नहीं
है। किसानों को तो फसलों के थोक पानी की जरुरत होती है। इंदौर के नागरिकों के लिए पीने
और घरेलू उपयोग हेतु अल्प मात्रा में लगने वाले नर्मदा जल की कीमत चुकाना मुश्किल
है तो फिर किसान इसकी कीमत कैसे चुका सकेंगें?
यदि वित्तीय और पर्यावरणीय चिंताओं को कुछ समय के लिए
नज़रअंदाज कर दें (मध्यप्रदेश सरकार ने तो वैसे भी इसकी कोई चिंता नहीं की है।) तो
भी लाख टके का सवाल यह है कि क्षिप्रा नदी के लिए औंकारेश्वर बॉंध से, गंभीर नदी
के लिए महेश्वर बॉंध से और पार्वती एवं कालीसिंध नदियों के लिए इंदिरा सागर बॉंध
से पानी लिया जाना क्या इतना आसान है? उल्लेखनीय है कि नर्मदा जलविवाद
न्यायाधिकरण के फैसले के अनुसार इंदिरा सागर और औंकारेश्वर परियोजनाओं के पानी के
इस्तेमाल का निर्णय सरदार सरोवर रिजरवायर रेग्यूलेशन कमिटी करती है। इस समिति में
अकेला मध्यप्रदेश कोई निर्णय नहीं ले सकता क्योंकि इसमें मध्यप्रदेश के अलावा
गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान राज्य भी शामिल हैं। साथ ही औंकारेश्वर एवं इंदिरा
सागर बॉंधों के कमाण्ड इलाकों में सिंचाई नेटवर्क का काम जारी है तथा पानी की
जरुरत भी है। ऐसे में इन कमाण्ड क्षेत्र के किसानों को पानी से वंचित कर मालवा के
किसानों को पानी दिया जाएगा? यदि ऐसा हुआ तो निमाड़ और मालवा के बीच बड़ा जलविवाद
पैदा होगा जो प्रदेश में सामाजिक असंतोष का कारण बनेगा।
नदी जोड़ परियोजना का उद्देश्य पानी की अधिकता वाले क्षेत्र
से कमी वाले क्षेत्र में पानी पहुँचाना था। लेकिन शिवराजसिंह चौहान की नदी जोड़
योजना में उल्टी गंगा बहाई जा रही है। कम औसत वार्षिक वर्षा वाले निमाड़ क्षेत्र
से अधिक वर्षा वाले मालवा क्षेत्र में पानी ले जाया जा रहा है। ऐसे में लाख टके का
सवाल यह है कि खान, गंभीर, क्षिप्रा, चंबल, कालीसिंध, और पार्वती जैसी सदानीरा
नदियों की दुर्दशा कर चुका मालवा का समाज नर्मदा के साथ कैसा सलूक करेगा? मालवा की
नदियों की तरह जब नर्मदा को भी सुखा दिया जाएगा तो नर्मदा को जीवित करने के लिए
किस नदी का पानी लाया जाएगा?
(हिमांशु
ठक्कर, दक्षिण एशियाई नदियों, बॉंधों और नागरिकों का समूह, दिल्ली की टिप्पणियों
के साथ।)