Tuesday, May 20, 2014

नर्मदा-क्षिप्रा नदी जोड़ योजना :

 फि‍र नादानी नदियों को जोड़ने की


                                                                                                                                      हाल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बहुप्रचारित नर्मदा-क्षिप्रा लिंक (पाईप लाईन) योजना का उद्घाटन किया गया है। चुनावी लाभ लेने के लिए तैयार की गई इस अव्‍यवहारिक योजना से प्रदेश सरकार ने एक नए जल विवाद की नींव रख दी है। साथ ही प्रदेश सरकार (और अवैधानिक गतिविधियों के प्रति ऑंखे मूँद लेने के लिए केन्‍द्र सरकार भी) का यह गैरकानूनी कृत्य सामने आया है कि इस योजना का न तो पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (EIA) संबंधी अध्ययन करवाया गया है और न ही पर्यावरणीय मंजूरी लेना जरुरी समझा गया है।
432 करोड़ रुपए की लागत और 5 क्यूमेक्स (5 हजार लीटर प्रति सेकण्ड।) क्षमता वाली इस योजना के लाभों के बारे में बड़े-बड़े और अविश्‍वसनीय दावे किए जा रहे हैं। दूसरे शब्दों  में यह क्षमता 362 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) है । मध्‍यप्रदेश सरकार के सूचना प्रकाशन विभाग की विज्ञप्ति के अनुसार योजना के घोषित लाभों में देवास और पीथमपुर के उद्योगों, देवास इंदौर सड़क पर बसे उपनगरों और 150 गाँवों को पेयजल उपलब्‍ध करवाने के साथ ही सूख चुकी क्षिप्रा नदी को सदानीरा बनाना भी शामिल है। लगभग इंदौर जैसे एक शहर की पेयजल जरुरत के बराबर क्षमता वाली बिजली पर निर्भर इस योजना के दावों पर विश्‍वास करना मुश्किल है। यदि पाईप लाईनों से ही नदियाँ जिंदा हो जाती तो अब तक शायद ही देश की कोई नदी सूखी रहती।
इस योजना के लिए नर्मदा पर निर्माणाधीन औंकारेश्वर परियोजना की नहरों से पानी लिफ्ट किया जाना है। नर्मदा परियोजना और इसके पानी के लिए दशकों से निमाड़ के किसानों को सपने दिखाए जा रहे हैं। लेकिन इससे पहले कि यह पानी निमाड़ के खेतों में पहुँच पाता इससे मालवा की नदियों को जिंदा करने और वहॉं का जल संकट खत्म करने का शिगुफा छोड़ दिया गया है। केवल इतना ही नहीं क्षिप्रा नदी को कलकल छलछल बहाने का सपना (सपनों और सच्‍चाई में फर्क होता है) पूरा करने के पहले ही इस पाईप लाईन को इंदौर के निकट स्थित पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र की ओर मोड़ दिया गया है। 362 एमएलडी से 90 एमएलडी औद्योगिक जलप्रदाय हेतु मध्‍यप्रदेश औद्योगिक विकास निगम और दिल्‍ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना द्वारा एक अलग कंपनी (स्‍पेशल परपज वेहीकल) बनाई गई है। दिल्‍ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा परियोजना द्वारा इस योजना में निवेश का अर्थ इस गलियारे के आसपास के क्षेत्रों में होने वाले औद्योगीकरण हेतु पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करना है। उद्योगपति सरकार की नीतियॉं प्रभावित करते हैं ऐसे में उद्योगों के सामने आम आदमी की हैसियत ही क्‍या है? वास्तव में जनता की ऑंखों में धूल झोकने का सरकार का यह छुपा एजेंडा है। उद्योगों के लिए सरकार ने पहले निमाड़ के लोगों को छला और अब मालवा के लोगों को छल रही है।
मालवा क्षेत्र की जल समृद्धि को बयान करने वाली कहावत "पग-पग रोटी, डग-डग नीर" स्थानीय जनमानस में सदियों से चर्चित है। लेकिन नब्‍बे के दशक की शुरुआत से ही मालवा में जल संकट की आहट सुनाई देने लगी थी। इसी समय देवास शहर में  पेयजल का इतना भीषण संकट पैदा हुआ कि शहर के लिए पानी की विशेष रेलगाड़ियाँ चलानी पड़ी। जिले को कृत्रिम जल संचयन में मॉडल बनाया गया। जंगल, खेत, खलिहान और घरों छतों से एक-एक बूँद पानी रोकने के सरकारी अभियान चलाए गए। रोके गए पानी के ऑंकड़ों का तालाबों की संख्‍या और रोके गए पानी की मात्रा में खूब बखान किया गया है। देवास के जल संचय अभियान के ऑंकड़ों से कई अधिकारियों ने खुद को असली 'भगीरथ' बताया तथा पुरस्‍कार और प्रशंसा पाते हुए अपने कैरियर चमका लिए। लेकिन प्रदेश में हर साल हजारों करोड़ रुपयों की जल संवर्धन योजनाओं के बावजूद न तो कहीं भमिगत जल में बढ़ोत्तरी दिखाई दे रही है और न ही पेयजल उपलब्‍धता में सुधार। देवास जिले में भी पिछले 2 दशकों से निरंतर बड़े-बड़े जल संचय अभियान चलाए जा रहे हैं तो फि‍र यहॉं की नदियाँ सूखी क्‍यों है?
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने 6 जुलाई 2012 को एक समारोह में दावा किया था कि उनके तब तक के 7 वर्षों के कार्यकाल में 'जलाभिषेक अभियान' के तहत प्रदेश में 7 लाख से अधिक जल संरचनाएँ में बनाई गई है। यदि हम 1994 से 2004 के बीच के दिग्विजयसिंह के कार्यकाल के 'पानी रोको' अभियान को नज़रअंदाज कर दें तो भी शिवराजसिंह के कार्यकाल में हर गॉंव में औसतन 20 से अधिक तालाब बनाए गए हैं। चूँकि मालवा में जल संकट है इसलिए इन 7 लाख तालाबों में से ज्यादातर मालवा में बने होंगें। इन जल संरचनाओं में जमा पानी कहॉं चला गया कि मालवा की एक के बाद दूसरी सारी नदियॉं सूखती जा रही है और मुख्यमंत्री को क्षिप्रा के साथ ही खान, गंभीर, चंबल, कालीसिंध और पार्वती नदी को भी उधार से पानी से बारहमासी बनाने की योजना बनानी पड़ रही है। मालवा क्षेत्र का समाज यदि अपने 'डग-डग नीर' की उपेक्षा कर इस समृध्द धरती को रेगिस्तान बनाने पर तुला है तो इस बात की क्या  गारण्टी है कि वह अनैतिक तरीके से मिले नर्मदा के पानी का सम्मान करेगा?
निमाड़ क्षेत्र के किसान मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खण्डपीठ के समक्ष इस योजना का संचालन और उद्घाटन रोकने की गुहार कर चुकें हैं। न्यायालय के समक्ष किसानों का तर्क है कि निमाड़ में नहरों का कार्य रोककर नर्मदा-क्षिप्रा पाईप लाईन का काम किया गया है। उल्लेखनीय इस पाईपलाईन योजना के लिए पैसा भी औंकारेश्वर नहर परियोजना के बजट से खर्च कर दिया गया है। नर्मदा घाटी के विकास के लिए बनाई गई नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण अब मालवा क्षेत्र के विकास में जुट गई है। अभी तक यही समझा जाता रहा है कि नर्मदा योजनाओं से निमाड़ में समृद्धि  आएगी, इसी आधार पर निमाड़ क्षेत्र के लोगों का बलिदान भी लिया गया। लेकिन, अब प्रस्‍तावित लाभ मृग मरीचिका प्रतीत होने लगे हैं।  केवल इतना ही नहीं, इससे मध्यप्रदेश के ही दो इलाकों के बीच नया जल विवाद खड़ा होने की आशंका बलवती हो गई है।
इस योजना के माध्‍यम से सिंहस्‍थ के दौरान क्षिप्रा में जल उपलब्‍धता भी प्रमुख लक्ष्‍य है इसलिए इस योजना को 'सिंहस्‍थ लिंक' का नाम दिया गया है। योजना के संबंध में धार्मिक विवाद भी शुरु हुए हैं। पहली आपत्ति नागा साधुओं की ओर से आई है जिसमें कहा गया है कि नर्मदा नदी की चिरकुआंरी होने की मान्‍यता के कारण वे इस नदी में स्‍नान नहीं करते हैं। नर्मदा का पानी मिल जाने के कारण उनके लिए क्षिप्रा में स्‍नान करना संभव नहीं होगा। स्‍मरण रहे कुंभ और सिंहस्‍थ में पहला स्‍नान नागा साधुओं का ही होता है। दूसरी आ‍पत्ति पायलट बाबा और कंप्‍यूटर बाबा जैसे कुछ साधुओं की ओर से आई है। इन साधुओं ने इस योजना को औचित्‍यहीन बताते हुए प्रदेश के 25 जिलों से होकर गुजरने वाली 'नर्मदा-क्षिप्रा लिंक तोड़ो' यात्रा प्रारंभ कर दी है। यात्रा के दौरान इस बात का प्रचार किया जाएगा कि प्रदेश सरकार ने योजना के नाम पर जनता को मूर्ख बनाया है। यदि 500 करोड़ रुपये क्षिप्रा को पुनर्जीवित करने में खर्च किए जाते तो यह नदी, पर्यावरण और स्‍थानीय लोगों के हित में होता।
देश में नदी जोड़ योजना के प्रभावों पर लम्‍बा विमर्श हो चुका है और विशेषज्ञों ने इस पर गंभीर सवाल उठाए हैं। इसके सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दुष्‍प्रभावों के कारण इसे आगे नहीं बढ़ाया जा रहा है। लेकिन मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान राजनैतिक लाभ के लिए बोतल में बंद इस जिन्न को फि‍र से आजाद कर रहे है। उनकी योजना में नर्मदा क्षिप्रा लिंक तो एक शुरुआत भर है। अक्‍टूबर 2012 को विश्‍व बैंक मुख्‍यालय में उनके द्वारा कर्ज की मॉंग करते हुए दिए गए प्रस्‍तुतिकरण के अनुसार सरकार की योजना 'नर्मदा-मालवा लिंक' का निर्माण करने की है जिसके तहत गंभीर, पार्वती, कालीसिंध आदि नदियों को नर्मदा से जोड़ा जाना है। इस योजना से 3000 गॉंवों और 10 शहरों को पेयजल उपलब्‍ध करवाने के साथ 16.8 लाख हेक्‍टर में सिंचाई की जाएगी। सबसे आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि बिजली से चलने वाली इस योजना से 1000 मेगावाट बिजली निर्माण का दावा भी किया गया है।
नर्मदा क्षिप्रा लिंक की वित्तीय व्‍यवस्‍था का खुलासा नहीं किया गया था। बाद में पता चला कि इस योजना के लिए त्‍वरित सिंचाई लाभ योजना (Accelerated Irrigation Benefit Scheme) के तहत औंकारेश्‍वर परियोजना की नहरों के लिए केन्‍द्र से मिले धन का उपयोग कर लिया गया है।
नर्मदा-मालवा जोड़ योजना के लिए प्रदेश सरकार ने विश्‍व बैंक से कर्ज की मॉंग की है इसलिए इसके अंतर्गत सभी योजनाओं को बाज़ार के सिध्‍दांतों से चलाया जाना है। 27 सिंतबर 2013 को जारी सैध्‍दांतिक सहमति में राज्‍य शासन ने स्‍पष्‍ट कर दिया है कि योजना का संचालन-संधारण खर्च किसानों से वसूल किया जाएगा। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के पिछले वर्ष के आंकलन के अनुसार नर्मदा क्षिप्रा लिंक में प्रति हजार लीटर पानी पंप करने का बिजली खर्च ही 9 रुपए बैठता है। यदि प्रशासनिक एवं अन्‍य खर्च जोड़ दिए जाऍं तो यह खर्च दुगना हो जाता है। इंदौर शहर में 1978 से नर्मदा जल प्रदाय करने की योजना संचालित है। इसके अब तक 3 चरण हो चुके हैं। लेकिन किसी भी चरण में नगरनिगम संचालन-संधारण खर्च वसूल नहीं पाया है। देवास औद्योगिक क्षेत्र हेतु प्रारंभ की गई नर्मदा योजना से पानी खरीदने हेतु स्‍थानीय नगरनिगम सक्षम नहीं है। किसानों को तो फसलों के थोक पानी की जरुरत होती है। इंदौर के नागरिकों के लिए पीने और घरेलू उपयोग हेतु अल्‍प मात्रा में लगने वाले नर्मदा जल की कीमत चुकाना मुश्किल है तो फि‍र किसान इसकी कीमत कैसे चुका सकेंगें?
यदि वित्तीय और पर्यावरणीय चिंताओं को कुछ समय के लिए नज़रअंदाज कर दें (मध्यप्रदेश सरकार ने तो वैसे भी इसकी कोई चिंता नहीं की है।) तो भी लाख टके का सवाल यह है कि क्षिप्रा नदी के लिए औंकारेश्वर बॉंध से, गंभीर नदी के लिए महेश्‍वर बॉंध से और पार्वती एवं कालीसिंध नदियों के लिए इंदिरा सागर बॉंध से पानी लिया जाना क्‍या इतना आसान है? उल्लेखनीय है कि नर्मदा जलविवाद न्यायाधिकरण के फैसले के अनुसार इंदिरा सागर और औंकारेश्वर परियोजनाओं के पानी के इस्तेमाल का निर्णय सरदार सरोवर रिजरवायर रेग्यूलेशन कमिटी करती है। इस समिति में अकेला मध्यप्रदेश कोई निर्णय नहीं ले सकता क्योंकि इसमें मध्यप्रदेश के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र एवं राजस्थान राज्य भी शामिल हैं। साथ ही औंकारेश्‍वर एवं इंदिरा सागर बॉंधों के कमाण्‍ड इलाकों में सिंचाई नेटवर्क का काम जारी है तथा पानी की जरुरत भी है। ऐसे में इन कमाण्‍ड क्षेत्र के किसानों को पानी से वंचित कर मालवा के किसानों को पानी दिया जाएगा? यदि ऐसा हुआ तो निमाड़ और मालवा के बीच बड़ा जलविवाद पैदा होगा जो प्रदेश में सामाजिक असंतोष का कारण बनेगा।
नदी जोड़ परियोजना का उद्देश्‍य पानी की अधिकता वाले क्षेत्र से कमी वाले क्षेत्र में पानी पहुँचाना था। लेकिन शिवराजसिंह चौहान की नदी जोड़ योजना में उल्‍टी गंगा बहाई जा रही है। कम औसत वार्षिक वर्षा वाले निमाड़ क्षेत्र से अधिक वर्षा वाले मालवा क्षेत्र में पानी ले जाया जा रहा है। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि खान, गंभीर, क्षिप्रा, चंबल, कालीसिंध, और पार्वती जैसी सदानीरा नदियों की दुर्दशा कर चुका मालवा का समाज नर्मदा के साथ कैसा सलूक करेगा? मालवा की नदियों की तरह जब नर्मदा को भी सुखा दिया जाएगा तो नर्मदा को जीवित करने के लिए किस नदी का पानी लाया जाएगा?

 (हिमांशु ठक्‍कर, दक्षिण एशियाई नदियों, बॉंधों और नागरिकों का समूह, दिल्‍ली की टिप्पणियों के साथ।)

Tuesday, May 7, 2013

India is not a post-constitutional democracy

All political parties have to be registered and state that they will conform to constitutional principles. Once this is done by them, any violation of this which is brought to the election commission's notice through complaints can be used to question the registration itself. They could be disqualified or even de-registered in case of severe violations.

To a large extent un-elected and un-electable or failed political workers get nominations as chairpersons or presidents in boards, corporations and similar authorities. sometimes like in the case of Karnataka Milk Federation (KMF) elections are held, but most likely rigged as well. Similar nomination without public scrutiny happens in case of batf and abide and an extra constitutional role for corporates in city planning is created. Corporate or business plans for growth do not have any space in this form at all!
Social justice and equity plans or other plans for a city like Bengaluru or region need to go through a metropolitan planning committee (mpc) which if formed properly is likely to have representatives from various parties and technically qualified people. To prevent a single party from dominating decisions in the mpc elected reps from all different parties and urban and rural jurisdictions shd be represented.

And if they are unaware they shd legalistically read up Part-IX (73rd CAA) and Part IX-A (74th CAA) of the Indian Constitution both of which have just completed 20 years recently.

Better days are ahead if more people know how to prepare plans with a constitutional morality, and more people inside and outside government have the capacity and the capability to conform to it and make other committees like batf or abide conform to it.

Equality before law as well as one person one vote are constitutional principles. Similarly equity in terms of resource allocation or use is just as important. In urban or rural areas any other form of influence will amount to buying favours / lobbying or even reverse clientelism (from corporates to politicians).

We need more people to commit themselves as upholders of constitutional norms. As the local government delivers facilities closest to the people all attempts to divert resources away from human development and reallocate funds to more profitable "infrastructure growth" comes into conflict with both the role of local government and constitutional norms.

We must bring back the focus on the all round development of people's and local government capacities and capability to deliver the amenities and facilities.
 
Separating the roles of government such as in the case of MP's vs MLA's vs corporator's / councillor's / panchayat members, and respect for all tiers of government (esp., local govt) are part of this framework of principles. So while the state govt provides the funds, functions and functionaries, the local government provides the facilities and amenities.

extra constitutional forms like govt committees for infrastructure or other corporate lobbies should not deliberately encroach on the constitutional form instead they must allow democratic decision making. Any number of committees as per law could be started but they have to confirm such principles and conform to them. These are the built in checks and balances and those who support the constitution will agree that an important role for citizens also exists for protecting the same, nurturing and helping move ahead.

Sunday, May 5, 2013

SAS helped evasion of BBMP property taxes by commercial developers, some IT sector?

While the self assessment scheme (SAS) for property tax assessment was an original idea of the BMP there was support from BATF in terms of branding and marketing it. Yet the batf hyped up the SAS based on the transparency criteria and so while the common tax payer paid up their dues, the big wigs including WIPRO, Phoenix mall etc evaded the same; see below., wipro allegedly did not pay for a few years (total amount being Rs 19.28 crores)

The question is did the batf's support help in this evasion of property taxes? Did big properties remain un assessed ? So then without checks and balances by officer visiting the premises for simple assessment of properties huge amounts of taxes worth crores were evaded?

on top of all this evasion BBMP was not allowed to raise property taxes as per law.

This is a dangerous trend since it deprives the allocation or expenditure of funds for the basic needs for which the local property taxes are most important.

e.g. see news report below
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CHITRA V. RAMANI


PTI A Bangalore Bruhat Mahanagar Palike (BBMP) squad conducting a "Drum Beating" session in front of the Wipro headquarters in Bengaluru on Friday.

Drumbeaters hired by the BBMP gathered outside Wipro’s head office


The IT city’s civic authority, the Bruhat Bangalore Mahanagara Palike (BBMP), applied thought and came up with a winner here on Friday. On a day when Wipro Ltd. announced its third quarter results, BBMP officials were busy drumming up pressure to get the Bangalore-based bellwether to cough up Rs. 19.28 crore in property dues.

Even as the country’s third largest software company trumpeted a net profit of Rs. 1,716 crore, a team of the feared drumbeaters hired by the BBMP gathered outside Wipro’s head office at Doddakannelli village, Sarjapur.


INSTANTANEOUS EFFECT

The effect was magical. Embarrassed company officials hastily handed over a cheque for Rs. 5 crore to Ramanand Rai, Deputy Commissioner, Mahadevapura Zone, with a promise to clear the remaining dues in a week, a gleeful official told The Hindu, adding that Wipro had not paid its property tax for five years. The official said the BBMP had sent several reminder notices, the latest on January 11.


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At Tesco, the committee found that the establishment owed the BBMP nearly Rs. 10 crore. On insistence, Tesco immediately cleared 40 per cent of the dues by paying Rs. 4 crore.

Phoenix Mall owes the BBMP Rs. 3.5 crore.
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reference

  1. http://www.thehindu.com/news/cities/bangalore/civic-body-applies-thought-to-force-wipro-to-fork-dues/article4320422.ece
  2. http://www.thehindu.com/news/cities/bangalore/bbmp-panel-collects-rs-5-cr-property-tax-dues-from-malls/article4412112.ece

Tuesday, April 30, 2013

'privatising' urban policymaking?

While b.pac, is formed only few months ago in run up to KLA elections 2013, the links between some members of these groups go back over a decade to the 1999 - Bangalore agenda task force (batf). e.g., at least 2 members of b.pac were in batf.

Many individuals from non-profit groups being from corporate sector, they are likely to have links with industry associations such as assocham, ficci, cii, nasscom, fkcci etc.

This is an important and long standing affiliation for most of them and in many cases they are office bearers and /or representatives of these industry chambers at various forums.  

Similar industry associations with foreign countries like USIBC, prince of wales business leaders forum etc., also exist and have similar objectives.

But we need to examine in detail these groups / committees :- batf, janagraha, bcct, abide. Why is there such a need? because many of them are closely involved in preparing plans, policies, primers, legislation, guidelines and the identification and implementation of contracts and projects.They are also funded by private corporate sector and / or their foundations.

This seems to be part of an unstated strategy. This funding has been used to lobby and influence specific outcomes, profitable to sectors such as urban housing, urban roads, urban infrastructure, urban sector policy, regional urban planning, urban land titling etc.,

A change in the policy making process has occurred with politicians and bureaucrats recognising that the private (corporate) sector can have increased role in policy and planning with the influence of world bank, adb, dfid, usaid etc. The use of consultants such as pwc, kpmg, e and y, ipe, etc was facilitated by them through many policy, legislation and projects and now local consultants are also part of the same.

These non-profits now operate through a consensus in which they have aligned their objectives for a city's growth, the sectors which should grow and the 'stakeholders' who should profit from this growth at the city level. Similarly the future investment destinations, and new locations of manufacturing and services are also planned by the corporate investment interests with support from govt and the chambers.

Individuals in these also have common link with corporate funded non-profit sector. Some of these are bcct (f), iusf, janaagraha, b.pac, abide etc. Some of these seem to work in tandem.

They are also represented on various Union or state govt committees, such as infrastructure, investment, ppp, urban governance, affordable-housing, micro-banking, transport etc.

They are also ably supported by favourable media conglomerates who occasionally become their mouthpieces.

Why has this process, privileged and advantaged corporate local plans over the constitutional processes such as district planning committee, metropolitan planning committee and ward committees etc?

If the local and regional planning paradigm is to be framed by multilateral banks, bilateral funders and now corporate funded non-profits, it is almost as if the plans should be adopted by the MPC's / DPC's without proper deliberation, debate or discussion!

Why shd the constitutional framework be disregarded except for making them into rubber stamp authorities for plan approval?

'privatising' politics: b.pac decreasing political risk to corporate investment ?

There are connections of b.pac founders and members to industry lobby groups like assocham, ficci, fkcci,nasscom or cii. these are industry or business chambers which influence and keep up group pressure on the Union and state govts for favourable policies. one such is associated chambers of commerce and industry (assocham) which has suggested points for the party manifestos :url link here (assocham moots 5-point growth agenda for parties in Karnataka )

and the report below correctly mentions that it is the IT- BT barons who are now funding 14 candidates from all parties with Rs 5 lakh each + campaigning online for them : url link here (IT-BT barons to fund 14 candidates).

Is it possible that the instability and inaction resulting from the 5 year term BJP govt has had an impact where rate of growth of Karnataka state has suffered due to which the it- bt honchos in the disguise of b.pac would like to ensure continued growth of their sectors? adb based in manila has cautioned the private corporate sector in general on the political risks and has therefore moved their project oriented decsion making to predominantly bureaucratic parastatal funding and investment institutions. If adb got a chance they would even have prepared a long term buisness plan for the KUIDFC in Karnataka -but were prevented from doing so at the last minute. Is this exactly the kind of business plan which is now being executed by b.pac through lobbying, and influencing outcomes so that political party manifestos and voting in elections by others need not create any setback for them, their business and business growth?


b.pac and other similar groups would like to decrease political risk arising in the KLA elections 2013, by asking parties to align with their it-bt business agenda, and their Bengaluru agenda viz.,
implementing the report of the Karnataka Information Technology and Communication (ict) Group which is over Rs 2,50,000 crores investment over 15 years just for Bengaluru : url link here ( The $50b Pai-Naidu Plan: too much, too late ). This was presented to the GoK after b.pac had coalesced but before it was formally launched as a trust on feb 3rd 13.
bmrg bill and bbmp legislation (initiated by abide but now backed by broad consensus in it-bt sectors through b.pac)

fact is that the pac's are a US phenomenon which gained strength before the 2010 elections to senate and congress and were supported by the US supreme courts 2010 decision in Citizens United vs Federal election commission.

b.pac has been inspired by them to push the agenda of ppp's (private sector-politician partnership) and it may well end up beginning the process of 'privatisation' of politics in Karnataka and India.

reference :
http://en.wikipedia.org/wiki/Political_action_committee

Wednesday, April 24, 2013

Directly elected Mayor for BBMP would conflict with the Constitution and public demands?

The argument against the very concept of a directly elected Mayor for a 5-year term comes from the need to have a representative, democratic, decentralisation based electoral process, with caste reservation and the principles enshrined in the Indian constitution, as well as the need for representation of the historically deprived urban poor.

Abundant safeguards need to be identified and implemented to ensure compliance with these principles in conformity with Part IX-A (74th CAA). The expression of the need for a directly elected mayor conflicts with them.

This could well be the classic conflict which a face off between concepts of globalisation and modernity throw up. In the Indian context the principles of equality and social justice implemented through the form of reservation for backward and historically deprived castes and communities (SC/ST, Women) is itself the expression of modernity. This is because it shows how the nation can move forward and how such a step ahead is consistent with the long standing demands for maintaining social justice and equality.

This is crucial when it comes to elections to municipal and local governments, use of resources and decision making regarding the planning and allocation of resources for fulfillment of basic public needs.

On the other hand the demands of the globalised terrain of for profit corporates and MNC's is to place a city such as Bengaluru in the governance frameworks of New York or London. Their not for profit foundations also join the chorus. In Bengaluru this reactionary force has crystallised into the Bangalore Political action committee (b.pac) a trust, which positions itself as the promoter of a middle class 'vote bank', the young educated globalised urban youth.

b.pac the "infrastructure advocates"

But there is a consensus among members of the b.pac trust to support the creation of infrastructure for the economic growth of city of Bengaluru rather than the human development of its citizens. This would mainly include highly expensive and profitable signal- free corridors, underpasses, toll based expressways, metro rail and stilt flyovers. Many of these would be access controlled due to high tolls or by restricting certain vehicles (like cycles, buses, horse drawn carriages and other non-motorised Transport) but not restricted for cars, SUV's, MUV's and XUV's.


Clearly this approach is distinct from supporting the implementation of projects for basic needs such as water supply, roads, drains and street lights, which are paid for by the property taxes of citizens. In fact by prioritising infrastructure growth as opposed to basic needs the property taxes are being diverted away from essential core functions of local governments such as water supply, streets, roads and roadside drains.

5-year term conflicts with constitutional principles

It is not possible to have adequate rotation, reservation, or representation if the term is five years for one directly elected Mayor. But would this conflict with constitutional principles? Yes - since this may result in the election of a Mayor from the SC/ ST community only after a period of 20-25 years depending on the rotation in reservation. It would be a gross setback to such principles and public demands.


Similarly an argument for the election of a mayor with a Bengaluru vision based on profits for 'stakeholders', commercialisation and corporatisation are also inconsistent with the principles listed above.

This is exactly why the current corporate obsession with 'infrastructure led growth' and growth rate of cities and city economies cannot be the drivers of a city vision consistent with democratic constitutional norms.

In fact the corporate vision for planning and infrastructure growth at local government level calls for a sacrifice of local democracy. These are more consistent with the vision of a city -state or a union territory which end up negating the need for a BBMP municipal council.

The democratisation required to strengthen the functioning of a local municipal council must also be debated and would be the subject of a future blog.....

74th CAA, untouchability, Bengaluru, BJP and the new BBMP Woman Mayor (ST ?)

The landmark urban decentralisation legislation- also known as the Nagarpalika act (74th CAA) along with its counterpart Panchayati Raj act (73rd CAA) is nearing the completion of 20 years in May 2013. This constitutional status for 'local government' a subject in the state list was an important achievement in the processof decentralisation. This act was discussed, debated and negotiated- through 3 different lok sabhas (1984-89, 89-91, and 91-96), with views expressed by national and regional parties and the tenure of 4 PM's (Rajiv Gandhi, V.P Singh, Chandrashekar and Narasimha Rao). Together these amendments were certainly the largest addition to the constitution in terms of impact and content on democratisation and decentralisation.

Karnataka High court order Mayoral elections go ahead


The Karnataka High Court, Bengaluru has recently ordered in April 2013 that the BBMP Mayor election can go ahead. The Chief Election officer of the CEC has also given the green signal for the same despite the fact that the code of conduct for MLA elections is in force. The condition imposed by the court order is that the GoK shd consider the post to be reserved for Scheduled Tribe candidates.
(Mayoral poll can be held if posts are reserved for STs)

The GoK in Jan 2013 had misused the delay in availability of the updated Census 2011 data. They did it by postponing preparation of the reservation roster of wards for election in the Urban local elections. Despite this with the Supreme courts intervention the elections to local governments were held, on March 7th 2013 by the state election commission. To prevent this all political parties had passed a joint resolution in the state assembly censuring the SEC. Thereafter the assembly even passed a law amending the KMC Act to force the SEC to take the concurrence of the GoK before announcing elections.

These efforts to prevent elections failed because the Governor of Karnataka did not provide his consent to the amended act. And when the elections were held the BJP was rejected by the voters, despite being known as an urban based party.

BBMP Mayor election - confusion and discrimination


Recently the BJP led GoK had changed the Mayor election reservation roster to General category to provide a chance for a Brahmin mayor (Lobbying for Mayoral post hots up). This was taken to court by groups saying the opportunity had to be given for the ST category since this was not done since last 16 years after the first election for Mayor held in 1996 (post the passage of 74th CAA).

Once again the GoK is forced to have elections to the post of Mayor, Dy Mayor and Chairpersons of standing committees of BBMP, by reserving the category back for Women - General (Govt changes category, city to have a woman mayor) .

Since it seems like the position of the BJP is against following constitutional mandates and principles, their ferocious attempt at imposing a Brahmin mayor on Bengaluru has backfired, instead the Mayor will now be category General - Women.

The BJP led GoK has an approach of symbolism and tokenism with the lack of any genuine commitment. So even the passage of a state act for 50% reservation of seats for women candidates in local government elections also backfired since this otherwise major political move could not be implemented.

They lack the basic approach of inclusiveness and would like to deploy all kinds of exclusionary and exclusivist tactics, which inevitably backfire, because people would take them to court or rout them at the elections.

In the case of the April 27th or 30th 2013 (going by news reports) Mayoral election for the BBMP, the ruling BJP has now once again demonstrated why they shd definitely not be re-elected in next months MLA elections.